गाजीपुर।
पवहारी बाबा का आश्रम गंगा जी के किनारे है और एक धार गंगा की पास से लग कर बहती है। लेकिन अब केवल बरसात में ही यह धार चलती है शेष समय सूखी रहती है। लेकिन इस धार की भी एक कहानी है।
जब पवहारी बाबा अपनी गुफा से बाहर आते थे तो एक भंडारा करते थे। सामान्य तौर पर वह साल भर में एक बार एक विशेष तिथि को (संभवत: ज्येष्ठ अमावस्या और माघ पूर्णिमा) को ही बाहर आते थे। तब भंडारा करते थे। कभी कभी पाँच वर्ष पर भी बाहर निकले।
स्वामी विवेकानंद जब पहुँचे थे तब वह अचानक बाहर आ गए थे जिससे उनकी भेंट हुई। हालाँकि इसके लिए स्वामी विवेकानंद को ग़ाज़ीपुर दो बार आना पड़ा था! और तीन चार माह की प्रतीक्षा करनी पड़ी थी। जब बाबा ने भंडारे की इच्छा की तब गर्मियों के दिन थे और आगंतुकों के लिए पेय जल की व्यवस्था करना कठिन मानकर उनके बड़े भाई ने असमर्थता प्रकट कर दी। तब बाबा ने कहा कि चिंता की कोई बात नहीं । एक चुनरी लेकर मा गंगा को निमंत्रण देने जाओ , वह कृपा करेंगी और ऐसा ही हुआ। मई जून के महीने में गंगा जी की धारा बहकर आश्रम के पास चली आयी और आज तक एक शाखा बनी हुई है। अफ़ीम फ़ैक्ट्री के प्रबंधकों ने अपने कर्मचारी गणों को भंडारे में जाने की छुट्टी दी थी और रिकार्ड में है कि गर्मी के महीने में गंगा में बाढ़ आ गयी।
बहरहाल भारत में संतों की अलग कोटियाँ हैं और चैतन्य का महा आकाश है। वह ओशो की तरह लतीफेबाज और जे कृष्णमूर्ति की तरह बाल की खाल निकालने वाले विचारकों से नहीं बना। भारत के आध्यात्मिक आकाश में सर्वाधिक देदीप्यमान नक्षत्रों की शृंखला में से एक ग़ाज़ीपुर के महान संत पवहारी बाबा (१८४०-१८९८) रहे। मूलत: जौनपुर के चौकियाँ धाम के पास प्रेमापुर गाँव के तिवारी ब्राह्मण परिवार में जन्मे पवहारी बाबा के बचपन का नाम हरिभजन तिवारी था। इनके पिता अयोध्या तिवारी गृहस्थ थे और उनके काका लक्ष्मीनारायण तिवारी योगाभ्यास में निपुण अत्यंत उच्चकोटि के महासाधक थे। उनका बनारस आना जाना रहता था। वहीं पर एक बार समाधिस्थ होने से लक्ष्मीनारायण तिवारी को उनके शिष्यों ने मृत समझ कर गंगा में प्रवाहित कर दिया।
वह बहकर ग़ाज़ीपुर के पश्चिम (आज जहां पर पवहारी बाबा का आश्रम है) वहीं पास में आ लगे। यहाँ अंग्रेजों ने गोलीबारी के लिए रेंज बना रखी थी। फ़ायरिंग अभ्यास के दौरान पहले हाँका होता था और पशुओं को भगा कर दूर कर दिया जाता था और लोगों को भी सावधान कर चेता दिया जाता था। अनेक बार चेताने के बाद भी लक्ष्मीनारायण तिवारी वहीं पर बैठे रहे। लोगों ने देखा कोई बाबा है इसलिए किसी ने नहीं हटाया। तब अंग्रेज कलेक्टर ने क्रोधित होकर उन्हें दूर फेंकवा दिया। जब शाम को कलेक्टर अपने घर पहुँचा तो उसके पारिवारिक जीवन में कोई बडी समस्या आन पड़ी। उसके कारिंदों में समझाया कि यह उस बाबा को परेशान करने का कुफ़ल भी हो सकता है। अगले दिन कलेक्टर ने जाकर क्षमायाचना की। उसके लिए आठ बीघा ज़मीन और गाय की व्यवस्था कर दी और कुछ खेत भी आवंटित कर दिया। लक्ष्मीनारायण तिवारी पाँच वर्षों तक वहीं रहे। तत्पश्चात् वह अपने गाँव प्रेमापुर गए जहां उनके बड़े भाई अयोध्या तिवारी उन्हें देखकर प्रसन्न हो गए।
उन्होंने कहा कि पता चला कि उनकी मृत्यु हो गयी थी। अयोध्या तिवारी के छोटे पुत्र हरिभजन तिवारी (पवहारी बाबा) थे जिनकी चेचक के कारण बचपन में ही एक आँख चली गयी थी। लक्ष्मीनारायण तिवारी ने सारी बात बता कर कहा कि वह अब कुर्था गाँव (ग़ाज़ीपुर) ही रहते हैं और किसी एक एक बच्चे को ले जाने के लिए आए हैं। उस समय पवहारी बाबा आठ साल के थे। उन्हें लेकर वह ग़ाज़ीपुर आए और कुछ समय के बाद उन्हें न्यायशास्त्र पढ़ाने के लिए बनारस आचार्यों के पास भेज दिया।
ऐसा कहते हैं कि पवहारी बाबा इतनी सुतीक्ष्ण मेधा के विद्यार्थी थे कि कोई भी आचार्य उन्हें तीन दिन से अधिक अपने पास नहीं रख सका। जब पवहारी बाबा बारह वर्ष के हुए तो उनके काका का देहांत हो गया और वह भारत भ्रमण के लिए निकल गए। गिरनार पर्वत पर उन्हें योग सिद्ध हुआ और आंतरिक प्रेरणा से वह पुन: कुर्था (ग़ाज़ीपुर) आ गए। वहीं पर उन्होंने धरती खोज कर गुफा बनायी और आश्रम की नींव डाली। योगाभ्यास के कारण वह किसी से मिलते नहीं थे। आस पास के लोग उनके आश्रम के पास उनके लिए दूध रख दिया करते थे। बाद में जब वह गुफा में ही रहने लगे तो लोगों ने देखा कि वह कुछ आहार नहीं लेते संभवत: हवा पीकर रहते हैं। इससे उनका नाम पवनाहारी बाबा या पवहारी बाबा हो गया।
ऐसा कहते हैं कि उनका दर्शन करने के लिए एक बार रामकृष्ण परमहंस स्टीमर से ग़ाज़ीपुर आए और उनका फ़ोटो अपने पास रखते थे। स्वामी विवेकानंद को उनके बारे में रामकृष्ण परमहंस ने ही बताया था। १८८६ में परमहंस देव के देहांत के बाद जब स्वामी जी भारत भ्रमण पर निकले तब वह १८९० जनवरी में ग़ाज़ीपुर आए। वहाँ अफ़ीम फ़ैक्ट्री में प्रबंधक एक बंगाली अफ़सर स्वामी जी के मित्र थे। उनके घर से लगभग दस किमी की दूरी पर स्वामी विवेकानंद इक्के से आते थे और एक पेड़ के नीचे दिन भर रहते थे।
पवहारी बाबा तो किसी से मिलते ही नहीं थे। वह अपनी बनायी गुफा में साँप और नेवलों के साथ रहते थे। आवश्यकता होने पर बाबा गुफा से बाहर आते थे और दरवाज़े के पीछे से आड़ लेकर बात करते थे। कोई उनका चेहरा नहीं देखता था। कई महीनों की प्रतीक्षा के बाद (जब बाबा गुफा से बाहर निकले थे) विवेकानंद से भी बाबा ने इसी तरह बात की थी और उनके सभी दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर देकर बौद्धिक रूप से उन्हें निरुत्तर कर दिया था।
उससे स्वामी विवेकानंद धर्म संकट में पड़ गए क्योंकि उन्होंने उन्हें मन ही मन गुरु बना लिया और उनसे योगानुभूति (ब्रह्मानंद) प्राप्त करने की तीव्र आकांक्षा के कारण आर्त्त होकर निवेदन करने लगे। तब अंत में एक रात में दीक्षा के लिए उन्होंने सहमति प्रदान की और आश्रम के भीतर आने के लिए संकेत किया। जब स्वामी विवेकानंद उनके दरवाज़े पर पहुँचे तो वहाँ पर रामकृष्ण देव मिले और संकेत न पाकर विवेकानंद लौट गए। कई दिनों तक ऐसा हुए। तब पवहारी बाबा ने कहा कि दास (अपने को सदैव दास ही कहते थे) में और आपके गुरु में कोई अंतर नहीं। वह कोई विशिष्ट उत्तरदायित्व देकर आपसे काम कराना चाहते हैं जिसे करना आवश्यक है। पवहारी बाबा ने उनका मानसिक आलिंगन कर उन्हें विशेष शक्ति प्रदान की और विश्व विजयी होने के लिए आशीर्वाद देकर विदा किया। यह भी कहा कि यह अंतिम भेंट है इसलिए दोबारा आने की आवश्यकता नहीं। जब स्वामी जी अमेरिका से लौट कर अल्मोडा प्रवास में (१९९८) थे तब उनके बंगाली मित्र जो ग़ाज़ीपुर में प्रबंधक थे उन्होंने सूचित किया कि योगाग्नि प्रज्वलित कर चिता पर बैठकर पवहारी बाबा ने समाधि ले ली!
“जौन साधन तौन सिद्धि” का उपदेश देने वाले पवहारी बाबा असाधारण कलाकार थे। राम लक्ष्मण सीता बालगोपाल और बलराम की उन्हीं की बनायी हुई मूर्तियों की पूजा अभी भी होती है। वह झूला भी वही है जिस पर सभी विग्रह विराजमान हैं। एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी तपस्वी के रूप में पवहारी बाबा मूलत: वैष्णव परम्परा के महायोगी और परमहंस थे। उनके बड़े भाई गंगा तिवारी के वंशज पवहारी मठ की देखरेख करते हैं और विग्रहों का षोडशोपचार पूजन भी करते हैं। बाबा ने अपने जीवनकाल में एक कुँआ भी खोद कर बनाया था जो अभी भी विद्यमान है। कहते हैं कि बाबा ने इसे एक ही रात में निर्मित कर दिया था। बाबा के चमत्कार की अनेक कहानियाँ हैं जिनके विषय में स्वयं स्वामी विवेकानंद ने ही लिखा है। उसे वहाँ से पढ़कर विस्तार से जाना जा सकता है इसलिए उसे नहीं दोहरा रहा।