बिहार में जातीय जनगणना का काम जारी है लेकिन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दलील पेश करते हुए कहा कि जनगणना का अधिकार केंद्र के अधीन है लिहाजा बिहार सरकार जातीय जनगणना नहीं करा सकती है. इन सबके बीच यहां बताएंगे कि जनगणना और जातीय गणना का हिसाब किताब क्या है. 1872 में जब भारत पर अंग्रेजी सरकार का शासन था उस वक्त वाइसरॉय लॉर्ड मेयो के समय जनगणना कराई गई. हालांकि नियमित तौर पर जनगणना का काम लॉर्ड रिपन के दौर में 1881 में शुरू हुआ और 10 साल के नियमित अंतराल पर इस प्रक्रिया को अमल में लाया गया.
1931, 1941 में जातीय जनगणना
अंग्रेजी सरकार के समय 1931 और 1941 में जातीय जनगणना कराई गई थी. 1931 की रिपोर्ट को तो सार्वजनिक किया गया लेकिन 1941 वाली रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई. 1947 में आजादी के बाद पहली जनगणना 1951 में हुई हालांकि उसमें जातीय जनगणना को शामिल नहीं किया गया. आजादी के करीब 63 साल बाद बीजेपी के नेता रहे गोपीनाथ मुंडे ने विकास का हवाला देते हुए जातीय जनगणना पर बल दिया. लेकिन 2011 में यूपीए 2 के शासनकाल में इसे शामिल नहीं किया गया और पूर्व की व्यवस्था को अमल में लाया गया.
जनगणना पर सिर्फ केंद्र का हक
मौजूदा समय में केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार है. इस सरकार के दूसरे कार्यकाल में यानी 2021 में जनगणना की जानी थी हालांकि कोरोना की वजह से से मामला लटक गया. इस बीच जब बिहार में सीएम नीतीश कुमार ने पाला बदल आरजेडी के साथ आए तो जातीय जनगणना की आवाज एक बार फिर बुलंद हुई. बिहार में इसकी शुरुआत की गई. मामला अदालत में भी गया और वहां से नीतीश सरकार के पक्ष में फैसला आया.
विरोध-समर्थन में सुर
जातीय जगणना के पक्ष में आवाज उठाने वाले कहते हैं कि इससे जमीनी स्तर पर विकास की योजनाओं को बनाने में मदद मिलेगी लेकिन विरोध में तर्क उठता है कि किसी भी इलाके का विकास वहां के पिछड़ेपन को आधार बनाकर करना चाहिए. जब इलाके विकसित होते हैं तो सामाजिक स्तर पर विकास होता है. जातीय जनगणना की वजह से समाज में बिखराव होगा