योगी आदित्यनाथ सरकार ने 40 साल पुराने मुरादाबाद सांप्रदायिक हिंसा की रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर रख दिया है. लेकिन विपक्ष को इसमें सियासत नजर आ रही है. विपक्षी दलों ने योगी सरकार के इस फैसले पर समय और मकसद को लेकर सवाल उठाया है. साल 1980 में कांग्रेस की सरकार थी और मुराबाद में सांप्रदायिक हिंसा हुई थी. इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस एम पी सक्सेना को दंगों की जांच की जिम्मेदारी दी गई थी. नवंबर 1983 में रिपोर्ट सौंपी गई लेकिन उसे सार्वजनिक नहीं किया गया.
रिपोर्ट में आरएसएस, बीजेपी को क्लीन चिट
रिपोर्ट में यूपी पुलिस, पीएसी, आरएसएस और बीजेपी को क्लीन चिट दी गई थी लेकिन उस समय आईयूएमएल के स्टेट प्रेसिडेंट शमीम अहमद और स्थानीय नेता को हिंसा भड़काने के लिए जिम्मेदार माना गया. हालांकि मुसलमानों के एक बड़े तबके को जिम्मेदार नहीं माना गया. बता दें कि 20 साल पहले शमीम अहमद का निधन हो चुका है. आईयूएमएल का कहना है कि रिपोर्ट में तथ्यात्मक खामियां थीं और वो राष्ट्रपति से 1980 दंगे की दोबारा जांच की अपील करेगी. यही नहीं जो लोग दंगों में मारे गए थे उनके लिए मुआवजे की भी मांग करेगी.
IUML को ऐतराज
झूठे तथ्यों पर बनाई गई रिपोर्ट से पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों को बचाने की कोशिश की गई. वास्तव में वो दोषी थे. आईयूएमएल के ज्वाइंट सेक्रेटरी कौसर हयात खान का कहना है कि 13 अगस्त को एक मेमोरेंडम राष्ट्रपति को भेजा जाएगा. उन्होंने यह भी कहा कि मुरादाबाद घटना सीधे तौर पर पुलिस और जिला प्रशासन द्वारा मुस्लिम समाज के खिलाफ कार्रवाई थी. उनके तत्कालीन नेता को गलत तरीके से फंसाया गया था. सही मायने में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ही दोषी थी. इससे पहले समाजवादी पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने विधानसभा में मुरादाबाद दंगों की रिपोर्ट पेश करने के भाजपा सरकार के कदम के समय पर सवाल उठाया और कहा कि इस तरह की रिपोर्ट चुनावी मौसम के दौरान आती हैं. 13 अगस्त 1980 को मुरादाबाद शहर के ईदगाह में भड़की हिंसा संभल, अलीगढ़, बरेली, इलाहाबाद और मुरादाबाद के ग्रामीण इलाकों में 1981 की शुरुआत तक जारी रही थी.